आयुर्वेद के त्रिदोष क्या है ? What are the Tridosha of Ayurveda in hindi
आयुर्वेद को “जीवन का ज्ञान” कहा गया है। क्योंकि यह प्राचीन संस्कृत ग्रंथों, वेदों से 5,000 साल पहले का है। यह उपचार की एक प्रणाली है जो ब्रह्मांड के संदर्भ में भावनात्मक प्रकृति और आध्यात्मिक दृष्टिकोण की जांच करती है।
दर्शन के अनुसार, सार्वभौमिक जीवन शक्ति तीन अलग-अलग ऊर्जाओं या दोषों के रूप में प्रकट होती है, जिन्हें वात, पित्त और कफ के रूप में जाना जाता है। हम सब इन तीन बलों के अनूठे संयोजन से बने हैं। हालांकि हर किसी के पास कुछ न कुछ होता है, अधिकांश लोगों में एक या दो दोषों की प्रचुरता होती है। यह अनूठा संयोजन गर्भाधान के समय निर्धारित किया जाता है और यह आपका अपना व्यक्तिगत खाका, या प्रकृति (प्रकृति) है। जैसे-जैसे आप जीवन में आगे बढ़ते हैं।
आयुर्वेद के त्रिदोष में से प्रत्येक का अनुपात आपके पर्यावरण, आपके आहार, मौसम, जलवायु, आपकी उम्र और कई अन्य कारकों के अनुसार लगातार बदलता रहता है। जैसे ही वे संतुलन में और बाहर जाते हैं, दोष आपके स्वास्थ्य, ऊर्जा स्तर और सामान्य मनोदशा को प्रभावित कर सकते हैं।
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आयुर्वेद के त्रिदोष – Tridosha of Ayurveda in Hindi
आयुर्वेद के त्रिदोष मुख्य रुप से तीन प्रकार के दोष होते है।
कफ दोष – Kapha Dosha
कफ का निर्माण पृथ्वी और पानी के घटकों से बना है। यह भारी, धीमा, ठंडा, चिकना, चिकना, नाजुक, मोटा, स्थिर, स्थूल और बादलदार होता है। कफ सभी चीजों को संरचना और मजबूती प्रदान करता है; यह एक विशेष रूप को बनाए रखने के लिए आवश्यक सामंजस्य प्रदान करता है।
कफ अतिरिक्त रूप से सभी कोशिकाओं और ढांचे को हाइड्रेट करता है, जोड़ों को चिकनाई देता है, त्वचा को संतृप्त करता है, प्रतिरक्षा बनाए रखता है और ऊतकों की सुरक्षा करता है। कफ अक्सर जल ऊर्जा, और प्रेम और करुणा के साथ जुड़ा होता है। शरीर में कफ की अधिकता अलग-अलग अंगों में होने के कारण उसको अलग-अलग नामों से भी जाना जाता है।
- कफ मस्तिष्क में है तो उसे तर्पक कहते हैं। इस प्रकार के कफ का कार्य स्पर्श, गंध, श्रवण, दृष्टि और स्वाद ग्रंथियों को नियंत्रित करता है।
- पेट का कफ भोजन को नम करता है और पेट में ठंडक पहुंचता है। इस प्रकार के कफ को क्लेदक कहते हैं।
- छाती का कफ शरीर में रक्त संचार, आर्द्रता और तरल पदार्थों की अपूर्ति करता है। इस कफ को अवलंबक कफ कहते हैं।
- जोड़ो में स्थिर कफ को श्लेषक कहते हैं। इस प्रकार के कफ का कार्य होता है शरीर में चिकनाई पहुंचाना।
- जीभ में पाए जाने वाले कफ को बोधक कफ के नाम से जानते है। बोधक कफ लार निर्माण में अपनी भूमिका निभाता है। इसी कफ के द्वारा भोजन को गले के नीचे ले जाया जाता है।
अब ऐसे में यदि कोई व्यक्ति बहुत ज्यादा वसा युक्त और चिकने खाद्य पदार्थ खाते हैं, अधिक नींद लेते हैं, सर्दियों की जगह पर बहुत ज्यादा समय तक निवास करते हैं, रात की वजह दिन में ज्यादा सोते हैं, शारीरिक रुप से बहुत ज्यादा एक्टिव नही रहते है अर्थात शारीरिक श्रम बहुत कम करते हैं। तो यह सभी कारण कफ दोष असंतुलन की वजह बनते हैं।
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अब ऐसे में यदि किसी व्यक्ति का कफ असंतुलित हो जाता है तो उसमें किस प्रकार के लक्षण दिखाई देते हैं –
- पाचन क्रिया में कमजोरी आ जाती है।
- मुंह में नमकीन जैसा स्वादा बना रहता है। जैसे आपके मुंह में नमक का पानी घुल गया हो।
- शरीर में पीलापन आने लगता है।
- शरीर में भारीपन या फिर ठंडक लगने जैसा महसूस होता है।
- अंगों के ठीक प्रकार से हिलते ढुलते नही हैं। उसमें अकडने जैसी समस्या आने लगती है।
पित्त दोष – Pitta Dosha
प्रत्येक दोष शरीर में अपने स्वयं के एक प्रमुख गुण के साथ मौजूद होता है और यह अन्य दो दोषों में से एक के साथ एक अन्य गुण भी साझा करता है। पित्त को शरीर में अग्नि के रूप में जाना जाता है। लेकिन यह पानी या तेल के रूप में मौजूद होता है। जब यह समझाया जाता है कि यह पानी या तेल के रूप में मौजूद है, तो यह मूल रूप से एसिड के रूप में होता है क्योंकि यह शरीर में आग की तरह मौजूद नहीं हो सकता है।
पित्त शब्द संस्कृत के ‘तप’ शब्द से बना है जिसका अर्थ है ऊष्मा। पित्त शारीरिक ऊर्जा है जो तरल है क्योंकि यह अग्नि और जल के तत्वों को जोड़ती है। यह दोष शरीर में पाचन और परिवर्तन को नियंत्रित करता है। पित्त दोष सबसे गर्म दोष है क्योंकि यह अग्नि से जुड़ा है। पित्त का शरीर पर प्रभाव गर्मी बढ़ाने वाला होता है। इससे शरीर में सूजन, गुस्सा, गर्मी का निर्माण और कई अन्य लक्षण होते हैं।
कफ की तरह पित्त की अलग-अलग अंगों में उपस्थित होने पर भिन्न-भिन्न प्रभाव होते है –
- जब पित्त व्यक्ति के हृदय में स्थित होता है। तो व्यक्ति के शरीर का तापमान, उसका रंग, और तेज का निंयत्रयण करता है। इस पित्त को साधक के रुप में जानते हैं।
- जब पित्त त्वचा में मौजूद होता है। तो यह शरीर की नमी, त्वचा और गर्मी को कंट्रोल करता है। इस पित्त को आयुर्वेद में आलोचक की संज्ञा दी गई है।
- जब पित्त छोटी आंत और पेट में होता है। तो ऐसे में यह शरीर के अग्नाशय और पित्त के रस के गठन को नियंत्रित करता है। इस पित्त का पाचक कहते हैं।
- पित्त जब व्यक्ति की आँखों में मौजूद होता है। तो उसे भाजक पित्त कहते हैं। इस प्रकार के पित्त का कार्य आँखों की दृष्टि में सहायक होता है।
- जो पित्त यकृत, पेट, अग्नाशय में स्थित होता है। और इसका काम पाचन तंत्र का मजबूत करना और रक्त कोशिकाओं का निर्माण करना होता है। इस पित्त को रंजक के रुप में जानते हैं।
शरीर में पित्त का संतुलन बिगड़ जाने के लिए कुछ ऐसे खाद्य पदार्थ हो जो इसके लिए जिम्मेदार होते हैं। यदि आप अधिक नमकीन, चटपटा, मसालेदार खाने के शौकीन हैं। तो आपके शरीर में पित्तदोष की खराबी बनी रहेगी। शरीर में पित्त दोष में उचार-चढ़ाव होने पर पाचन तंत्र में परिवर्तन आता है।
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यदि किसी व्यक्ति में पित्त की अधिकता हो जाती है या पित्त दोष असंतुलित हो जाता है तो किस प्रकार के लक्षण दिखाई देते हैं –
- कोध्र की अधिकता देखने को मिलती है।
- ईर्ष्या
- किसी दुसरे के ऊपर हावी होने की आदत ।
- अस्थिरता इत्यादि ।
वात दोष – Vata Dosha
वायु और ईथर तत्वों से मिलकर, यह शरीर और मन में गति का सिद्धांत बल है। जब वात दोष स्वस्थ होता है, तो शरीर की गतियां सुडौल, अबाधित, और फिर भी नियंत्रित होती हैं। संतुलन से बाहर होने पर, हलचलें अनिश्चित, अत्यधिक, घटी हुई या अवरुद्ध हो जाती हैं।
वात दोष को समझने के लिए इसके गुणों को समझना जरूरी है। वात दोष हल्का, शुष्क, ठंडा, कठोर, खुरदरा, तेज, सूक्ष्म, बहने वाला और स्पष्ट होता है। एक शरीर और मन जिसमें वात दोष प्रबल होता है, इन गुणों को व्यक्त या प्रतिबिंबित करता है।
वात दोष को इसके घटक भागों, इसके उपदोषों के संदर्भ में सबसे अच्छी तरह से समझा जाता है, जो कि पांच प्रकार के वात या पांच प्रकार की गति हैं। प्रत्येक उपदोष गति की दिशा को परिभाषित करता है और शरीर में विशिष्ट क्रियाओं को नियंत्रित करता है।
कफ और पित्त के तरह यह भी शरीर के भिन्न-भिन्न स्थानों में अलग-अलग प्रभाव देता है। जोकि निम्नलिखित है –
- जब वात व्यक्ति की छाती , नाभि और नाक में मौजूद होता है। तो यह व्यक्ति की चेतना, बोलना , श्वशन क्रिया आदि को सुचारु रुप से नियंत्रित करता है। इस वात को उदान कहते हैं।
- पेट में होने पर आत्मसात करने में सहायक होता है। इस वात को समान कहते हैं।
- जब वात मुत्र पथ, जननांग, पेट व जांघ में होता है। तो यह मलमूत्र, वीर्य, मासिक धर्म प्रवाह को नियंत्रित करता है। इस वात को अपान वात कहते हैं।
- जब वात मस्तिष्क के बीच में स्थित होता है। तो यह शरीर की वात की गतिविधियों को कंट्रोल करने में मदद करता है। इस वात को प्राण के नाम से संबोधित करते हैं।
- जब वात ह्रदय में, तंत्रिका तंत्र , रीढ़ की हड्डी में स्थित होता है। तो यह मांस पशियों, के फैलने और सिकुडने , उत्तेजना, स्त्राव, पसीना आदि को नियंत्रित करता है। इस वात को व्यान कहते हैं।
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